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प्र꣡ वा꣢मर्चन्त्यु꣣क्थि꣡नो꣢ नीथा꣣वि꣡दो꣢ जरि꣣ता꣡रः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ इ꣢ष꣣ आ꣡ वृ꣢णे ॥१५७५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र वामर्चन्त्युक्थिनो नीथाविदो जरितारः । इन्द्राग्नी इष आ वृणे ॥१५७५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । वा꣣म् । अर्चन्ति । उक्थि꣡नः꣢ । नी꣣थावि꣢दः꣢ । नी꣣थ । वि꣡दः꣢꣯ । ज꣣रिता꣡रः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । इ꣡षः꣢꣯ । आ । वृ꣣णे ॥१५७५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1575 | (कौथोम) 7 » 3 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 16 » 1 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में जीवात्मा और परमात्मा का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मन् और परमात्मन् ! (उक्थिनः) गुणों के प्रशंसक, (नीथाविदः) नीतिज्ञ (जरितारः) स्तोता लोग (वाम्) आप दोनों की (प्र अर्चन्ति) भली-भाँति स्तुति करते हैं। मैं आप दोनों की सहायता से (इषः) आनन्द-रसों और ज्ञान-रसों को (आवृणे) ग्रहण करता हूँ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य जीवात्मा को उद्बोधन देकर और परमात्मा की पूजा करके दिव्य ज्ञान तथा आनन्द को पाकर महान् उन्नति कर सकते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ जीवात्मपरमात्मनोर्विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मपरमात्मानौ ! (उक्थिनः) गुणप्रशंसकाः, (नीथाविदः) नीतिज्ञाः (जरितारः) स्तोतारः (वाम्) युवाम् (प्र अर्चन्ति) स्तुवन्ति। अहम् युवयोः साहाय्येन (इषः) ज्ञानरसान् आनन्दरसांश्च (आ वृणे) गृह्णामि। [नीथः—णीञ् प्रापणे धातोः ‘हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्।’ उ० २।१ इति क्थन् प्रत्ययः।] ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

मनुष्या जीवात्मानमुद्बोध्य परमात्मानं च समभ्यर्च्य दिव्यं ज्ञानमानन्दं चाधिगम्य महतीमुन्नतिं कर्तुं पारयन्ति ॥१॥